Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने कहा, “वह अब मुझे नहीं चाहता। सोचता है कि यह आफत दूर हो जाय तो अच्छा है।”


“किन्तु वह तो तुम्हारा नजदीक का अपना है, उस तुमने बचपन से ही पाल-पोसकर आदमी जो बनाया है?”

“यह आदमी बनाने का सम्बन्ध ही रहेगा, और कुछ नहीं। वह मेरा नजदीक का अपना नहीं है।”

“क्यों नहीं है? अस्वीकार कैसे करोगी?”

'अस्वीकार करने की इच्छा मेरी भी न थी,” फिर क्षण-भर तक चुप रहने के बाद बोली, “मेरी सब बातें तुम भी नहीं जानते। मेरे विवाह की कहानी सुनी थी?”

“लोगों की जुबानी सुनी थी। पर उस वक्त मैं देश में न था।”

“हाँ, नहीं थे। दु:ख का ऐसा इतिहास और नहीं है, ऐसी निष्ठुरता भी शायद कहीं नहीं हुई। पिता माँ को कभी नहीं ले गये, मैंने भी उन्हें कभी नहीं देखा। हम दोनों बहिनें मामा के यहाँ ही बड़ी हुई, बचपन में ज्वर की वजह से हमारा चेहरा कैसा हो गया था, याद है?”

“है।”

“तो सुनो। बिना अपराध उस दण्ड के परिणाम को सुनकर तुम्हारे जैसे निष्ठुर आदमी को भी दया आ जायेगी। बुखार आता था, पर मौत नहीं आती थी। मामा खुद भी नाना तकलीफों से शय्यागत हो रहे थे। हठात् खबर मिली कि दत्त का ब्राह्मण रसोइया हमारी ही जाति का है, मामा की तरह ही असल कुलीन है। उम्र साठ के करीब है। हम दोनों बहिनों को एक साथ ही उसके हाथों सौंपा जायेगा। सबने कहा कि इस सुयोग को खो देने पर इनका कुँवारापन नहीं उतर सकेगा। उसने सौ रुपये माँगे, मामा ने थोक दर लगाई पचास रुपये। एक ही आसन पर, एक साथ और फिर मेहनत कम। यह उतरा पचहत्तर रुपये पर बोला, “महाशय, दो-दो भानजियों को कुलीन के हाथ सौंपेंगे और एक जोड़ा बकरी के दाम भी न देंगे? भोर-रात्रि में लग्न थी, दीदी तो जागी थीं किन्तु मैं पोटली जैसी उठाकर लाई गयी और उत्सर्ग कर दी गयी! सुबह से ही बाकी पच्चीस रुपयों के लिए झगड़ा शुरू हो गया। मामा ने कहा, “बाकी पच्चीस रुपये उधार रहे, अग्नि-संस्कार-क्रिया होने दो।” वह बोला, “मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ, इन सब मामलों में उधार-सुधार का काम नहीं।” आखिर वह लापता हो गया। शायद उसने सोचा कि मामा कहीं न कहीं से रुपये लेकर देंगे और काम पूरा करेंगे। एक दिन हुआ, दो दिन हुए, माँ ने रोना-धोना शुरू किया, मुहल्ले के लोग हँसने लगे, मामा ने दत्त के यहाँ जाकर शिकायत की, किन्तु वह फिर नहीं आया। उसके गाँव में खोज की गयी, वहाँ भी वह नहीं मिला। हमें देखकर कोई कहता कलमुँही, कोई कहता करमफूटी-शर्म के मारे दीदी घर से बाहर नहीं होती थीं। उस घर से छह महीने बाद उन्हें बाहर किया गया श्मशान के लिए! और कोई छह महीने बाद कलकत्ते के किसी होटल से समाचार आया कि वहाँ खाना पकाते वर महोदय भी बुखार से मर गये। इस तरह ब्याह पूरा नहीं हुआ।”

कहा, 'पच्चीस रुपये में दूल्हा खरीदने से यही होता है!”

राजलक्ष्मी ने कहा, “उसे तो मेरे हिस्से के पच्चीस रुपये मिल भी गये, पर तुम्हें क्या मिला था- सिर्फ एक करौंदों की माला। वह भी खरीदनी नहीं पड़ी, बन से तोड़ लाई थी।”

कहा, “जिसके दाम न लगें उसे अमूल्य कहते हैं। और कोई दूसरा आदमी तो दिखाओ जिसे मेरी तरह अमूल्य धन मिला हो?”

“बताओ कि यह क्या तुम्हारे मन की सच्ची बात है?”

“पता नहीं चला?”

“नहीं जी नहीं, नहीं चला सचमुच ही नहीं चला।” पर कहते-कहते ही वह हँस पड़ी, बोली, “पता सिर्फ तब चलता है जब तुम सोते हो- तुम्हारे चेहरे की ओर देखकर। पर इस बात को जाने दो। हम दोनों बहिनों जैसा दण्ड इस देश की सैकड़ों लड़कियों को भोगना पड़ता है। और कहीं तो शायद कुत्ते-बिल्लियों की भी इतनी दुर्गति करने में मनुष्य का हृदय-काँपता है।” यह कह क्षण-भर तक देखते रहने के बाद बोली, “शायद तुम सोचते होगे कि मेरी शिकायत में अत्युक्ति है, ऐसे दृष्टान्त भला कितने मिलते हैं? उत्तर में यदि कहती कि एक हो तो भी सारे देश के लिए कलंक है, तो मेरा जवाब काफी हो जाता, पर मैं यह न कहूँगी। मैं कहती हूँ कि बहुत होते हैं। चलोगे मेरे साथ उन विधवाओं के पास जिन्हें मैं थोड़ी-बहुत सहायता करती हूँ? वे सबकी सब गवाही देंगी कि उनके घर के लोगों के उनके भी हाथ-पैर बाँधकर ऐसे ही पानी में फेंक दिया था।”

कहा, “शायद इसी कारण उनके लिए इतनी दया-माया है?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम्हें भी होती अगर ऑंखें खोलकर हमारा दु:ख देखते। अब से मैं ही एक-एक कर तुमको सब दिखाऊँगी।”

“मैं नहीं देखूँगा- ऑंखें बन्द किये रहूँगा।”

“नहीं रह सकोगे। मैं अपने काम का भार एक दिन तुम पर ही डाल जाऊँगी। सब भूल जाओगे, पर यह कभी न भूल सकोगे।” यह कह वह कुछ देर मौन रहकर अकस्मात् अपनी पहली कहानी के सिलसिले में कहने लगी, “ऐसा अत्याचार तो होता ही है। जिस देश में लड़की की शादी न होने पर धर्म जाता है, जाति जाती है, शर्म से समाज में मुँह नहीं दिखाया जा सकता- गँवार, गूँगी, अन्धी, रोगिणी-किसी की भी रिहाई नहीं- लोग वहाँ एक को छोड़कर दूसरे की ही रक्षा करते हैं। इसके अलावा उस देश में मनुष्यों के लिए दूसरा उपाय ही क्या है, बताओ? उस दिन सब मिलकर यदि हम दोनों बहिनों को बलि न दे देते, तो दीदी शायद मरती नहीं और मैं इस जन्म में इस तरह शायद तुम्हें नहीं भी पाती, पर मेरे मन में तुम हमेशा इसी तरह प्रभु बनकर रहते। और, यही क्यों? मुझे तुम टाल नहीं पाते। जहाँ भी होते- चाहे जितने दिन हो जाते, तुम्हें खुद आकर ले ही जाना पड़ता।”

कुछ जवाब देने की सोच रहा था, हठात् नीचे से एक किशोर कण्ठ की पुकार आयी, “मौसी?”

आश्चर्य से पूछा, “यह कौन है?”

“उस मकान की मँझली बहू का लड़का है,” कहकर उसने इशारे से पास का मकान दिखा दिया और जवाब दिया, “क्षितीश, ऊपर आओ बेटा।” दूसरे ही क्षण एक सोलह-सत्रह वर्ष के सुश्री बलिष्ठ किशोर ने कमरे में प्रवेश किया। मुझे देखकर पहिले तो वह संकुचित हुआ, फिर नमस्कार करके अपनी मौसी से बोला, “आपके नाम मौसी, बारह रुपया चन्दा लिखा गया है।”

“लिख लो बेटा, पर होशियारी से तैरना, कोई दुर्घटना न हो।”

“नहीं, कोई डर नहीं मौसी।”

राजलक्ष्मी ने आलमारी खोलकर उसके हाथ में रुपये दिये, लड़का द्रुतवेग से सीढ़ी पर से 

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